Wednesday, September 22, 2010

Baal Kavita

दीदी संग सुबह सवेरे मैं भी स्कूल जाउंगा
मां मुझे बस्ता मंगा दे मैं भी पढ़ने जाउंगा
छोड़ शरारत, पढ़ लिख कर जग में नाम कमाउंगा
मां मैं भी पढ़ने जाउंगा

पढ़ लिख कर मां जब मैं बड़ा हो जाउंगा
कर दूर अंधेरा अशिक्षा का नया सवेरा लाउंगा
छोड़ चुके जो पढ़ना लिखना उनको राह दिखाउंगा
मां मैं भी पढ़ने जाउंगा

दूर होंगे दुख सारे जब बड़ा अफसर बन जाउंगा
दूर गंदगी कर देश की स्वस्थ भारत बनाउंगा
दूर कर झगड़ा सब खुशियों के दीप जगाउंगा
मां मैं भी पढ़ने जाउंगा

Wednesday, May 27, 2009

मेरा जेल जाना

सुबह अचानक हड़बड़ाहट में नींद खुली, एकदम सुनसान घुप अंधेरा चारों ओर फैला हुआ था। न कोई शोरगुल, न चहल-पहल की आवाज और न कोई लाउड्स्पीकर की घरघराहट। अगल-बगल टटोलने पर और दिमाग पर जोर डालने के बाद ध्यान आया कि मैं अपने घर पर हूं। मेरा 12 वर्ष का बेटा मेरे साथ सोया हुआ है। लंबी सांस खींचने के बाद डर मिश्रित संतोष मिला। कुछ देर बैठे रहने पर फिर लेट गया और सोचते हुए उन पलों को एक-एक कर जोड़ने लगा जो 15 दिन मेरे परिवार के लिए बहुत मुसीबत भरे थे।

वैसे तो सुबह और दिन की ही तरह थी। सुबह का समय आमतौर पर घरों में हड़बड़ाहट वाला होता है। बच्चों को स्कूल छोड़ना और घर आकर नहाना, नाश्ता करना फिर तैयार होकर काम पर निकल जाना। मैंने जल्दी में नाश्ता किया, क्योंकि मुझे बैंक में कुछ पैसे जमा करने के बाद सीधे ऑफिस में जाना था। परंतु मुझे यह नहीं मालूम था कि स्पेशल पुलिस के कुछ जांबाज सिपाही सुबह छह बजे से मेरे घर के इर्दगिर्द गिध्द दृष्टि रखे हुए हैं कि जैसे ही शिकार निकले, उसको दबोच लें। और फिर हुआ भी वही। मुझे ऐसा आभास कुछ दिनों से हो रहा था कि मैं कहीं उलझन में फंसने वाला हूं, पर वह दिन आज होगा इसका मुझे कतई अंदेशा नहीं था।

घर से निकलने के बाद यमुना के पुल पर मैं अपनी मस्ती में गुनगुनाते हुए चला जा रहा था। अचानक मोटरसाइकिल पर सादी वर्दी में पहने दो पुलिसवालों ने मुझे रोका और पूछा कि क्या भगतसिंह तुम्हारा नाम है। हां कहने पर रुकने का इशारा किया और मैं रुक गया। मैंने सोचा शायद लाइसेंस चैक करना होगा, परंतु क्या मालूम था कि वे दो नहीं पूरी की पूरी टीम मौजूद थी। करीबन 12-13 लोग रहे होंगे। दो गाड़ियां थीं और दो मोटरसाइकिल। जीप में सवार सब इंस्पेक्टर फुर्ती से ऐसे नीचे उतरे जैसे शिकारी शिकार करने के बाद खुद पर गर्व महसूस कर रहा हो। हाथ मिलाकर अपना नाम बताया और कहा कि कुछ पूछताछ के लिए थाने चलना है। गाड़ी में बैठने के बाद सोचा कि अनजाने में मेरे से ऐसा कौन सा इतना बड़ा गुनाह हुआ होगा मुझे पकड़ने के लिए भारत सरकार को इतने लोगों की जरूरत पड़ी।

थाने पहुंचने पर पता चला केस क्या है। इल्जाम था चीटिंग का। धारा 420 के साथ 121 और 151 भी लगी थी। जेल पहुंचाने का इरादा तो पुलिस का पहले से था। दिनभर की थका देने वाली पूछताछ के बाद, बिना सबूतों को जो थे नहीं और मिले भी नहीं, इकट्ठा करने में कोई परेशानी न हो इसलिए तिहाड़ भेज दिया गया। कुछ महीनों की जद्दोजहद के बाद वह केस भी सिरे से खत्म हो गया। वकालात, हवालात फिर तिहाड़ जेल को पहली बार करीब से देखने और समझने का मौका नसीब हुआ। वकालाती कार्यों में पारांगत तो नहीं पर समझ जरूर आ गई कि अंदर आखिर होता क्या है। भाग्य को कई बार कोसा भी पर निरीह प्राणी सोचने के अलावा और कर भी क्या सकता है। अब तक की कहानी से पूरा साफ हो चुका था कि थाने में मौजूद जाबांज सिपाहियों ने मेरे तिहाड़ जेल भेजने के पूरे हालात बना लिए हैं। नहीं तो अभी तक पानी में तिनके का सहारा लग रहा था कि कहीं से शायद कुछ...।

आखिरकार मैं भी तिहाड़ पहुंच ही गया। 'मैं भी' इसलिए क्योंकि माता-पिता भी तिहाड़ देख चुके थे, परंतु वे आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण जनसमुदाय के साथ तिहाड़ गए थे और मैं भाई लोगों के प्यार के कारण। ऐसे ही खालीपीली। तीस हजारी कोर्ट की हवालात में ठूंस दिए जाने के बाद हवलदार साहब ने एक थैली में चार पूड़ी और आलू की सब्जी थमाई। उसके बाद उछलते हुए बाहर की ओर जाते समय ऐसे खुश हुए जैसे जान बची सो लाखों पाए ।

अब मैं अकेला नहीं था। वहां और भी थे। पर उनमें से ज्यादातर अभ्यासरत थे। उनकी बातचीत के तौर तरीकों से लग रहा था यह उनकी जानी पहचानी जगह है। घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल था। परंतु घबराहट मुझ अकेले को थी ऐसा नहीं था। पहली बार आने वालों में शायद एक और भी था जो मुझे काफी देर से घूर रहा था। एक सरदार जी, जो उम्र में ज्यादा नहीं थे मेरे पास आए और पूछा कि क्या पहली बार आए हो। मेरे हां कहने पर उसने बताया कि वह भी पहली बार आया है और मारपीट के केस में फंसा है। मैंने सोचा ऐसी भी क्या मारपीट कि तिहाड़ जाना पड़े, परंतु बाद में पता चला कि उसने करोलबाग की किसी दुकान से अच्छा हाथ मारा था। एक दो और लोगों से बातचीत होने से घबराहट कुछ कम हुई। वहां अक्सर बातचीत का सिलसिला 'हां भई क्या करके आया है' से शुरू होता है।

शाम होते-होते जेल की गाड़ी में डाल दिया गया जैसे आवारा जानवरों को म्यूनिसपेलिटी की गाड़ी में डाला जाता है। एक तो तिहाड़ देख चुके लोगों के अनुभवों से पहले ही डरा हुआ था जिससे गाड़ी में बैठे लोगों की शक्लें और भयानक लगने लगीं। कोई हादसा न हो इस कारण सावधान बैठा रहा। परंतु कुछ देर बाद आस-पास बैठे लोगों से बातचीत करने से थोड़ी हिम्मत आई। कोई बीबी से झगड़े के कारण जेल जा रहा था तो कोई जुआ खेलने के कारण। किसी ने गाड़ियां चोरी कीं तो कोई स्मैक पीने के कारण। कुल मिलाकर ऐसा तबका था जिनके पास कोई ढंग का रोजगार न था और चोरी करना व शराब पीकर झगड़ा करना शायद उनकी नियति बन चुका था। पर उनसे बात करके ऐसा नहीं लगा कि यह उनकी आदत है, अगर उन्हें काम-धंधा मिले तो वह गलत काम कभी न करें। गाड़ी चलने लगी और तीस हजारी कोर्ट से बाहर आ गई।

जाना पहचाना रास्ता उस दिन सरकारी गाड़ी से अलग ही नजर आ रहा था। बाहर की रौनक पहली बार इतनी सुंदर लगी। कुछ देर बाद गाड़ी तिहाड़ के फाटक के पास जाकर रुकी। हमें लाइन में उतरने की सख्त हिदायत दी गई। काफी बड़ा सा गेट और अंदर जाने का छोटा सा रास्ता पार करने के बाद हमें एक ओर बैठा दिया गया। अंगूठे का निशान और अता पता नोट किया। बड़े से गेट के छोटे से फाटक से जांच-पड़ताल करने के बाद अंदर धकेल दिया गया। अंधेरे में खूबसूरत हरियाली भी भयानक लग रही थी। सुना था तिहाड़ जेल में कैदियों को मारा पीटा जाता है और जबर्दस्ती काम लिया जाता है। यदि काम से मुंह मोड़ा तो आपकी खैर नहीं और जहां गालियों से आपका स्वागत होता है। अंदर आने के बाद एक जगह लाइन में उकड़ु बैठने को कहा गया, परंतु मोटे होने के कारण मुझे बैठने में परेशानी हो रही थी पर मरता क्या न करता, सांस रोक कर बैठना पड़ा। पूछने पर पता चला इस जगह को चक्कर कहते हैं। पूछताछ की एक जांच से यहां भी गुजरना होता है और तय होता है आपका जेल का नम्बर। वैसे तो अक्सर पहली बार आने वाले कैदी को जेल नं.-एक में ले जाया जाता है। नाम के पहले अक्षर के हिसाब से तय किया जाता है कि आपको किस नम्बर की जेल में ले जाया जाएगा, जिसे जेल की भाषा में राशि कहते हैं।

अंधेरा काफी हो गया था शायद शाम के नौ बजे थे। तब तक साथ आने वालों में से एक-दो से बातचीत होने के कारण दुख और डर कुछ कम हो गया था। उन्हीं से पता चला कि अंदर डरने जैसी कोई बात नहीं है। खैर, जेल नंबर-एक में जाने के बाद एक बार फिर से लाइन में बैठने को कहा गया। खाने के लिए थाली दी गई परंतु भूख तो थी नहीं सो ऐसे ही सारी रात कटी। एक कंबल बिछाने के लिए और एक चादर ओड़ने के लिए मिल गई थी। साथ आने वालों में कुछ रो रहे थे और मैं आवाक सा चारों ओर देखने और समझने की कोशिश कर रहा था। दिन तो जैसे तैसे कट जाता था मगर 70 लोगों की भीड़ के साथ सोते में अपने को अकेला पाता था। अंधेरी रात में सोचने के अलावा आखिर कर भी क्या सकता था। और मैं सोचने लगा कि मुझसे कहां क्या गलती हो गई।

ईश्वर पर मेरा अटूट विश्वास है। कई दिनों से मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि प्रभु मुझे कहीं ऐसी किसी एकांत जगह भेज दे जहां मुझे कोई जानता-पहचानता न हो ताकि इस रोज की भागदौड़ वाली जिंदगी से कुछ पल सुकून के मिल सकें। मेरी प्रार्थना में इतना असर था मुझे मालूम न था और ईश्वर ने भी मेरी प्रार्थना सुन तथास्तु कहने में कोई देर नहीं की और मैं कुछ दिनों बाद हवालात और फिर तिहाड़ जेल में था। हे मेरे प्रभु मैंने ऐसा एकांत तो नहीं मांगा था- रात को लेटे-लेटे मैंने सोचा।

पहली बार परिवार से बिछुड़ने के बाद जाना कि परिवार क्या होता है। उस रात परिवार की बहुत याद आई। घर को याद कर आंखों के कोने गीले हो जाते थे। कैसे, जब उन्हें पता चला होगा कि मैं जेल पहुंच गया हूं, सरोज ने बच्चों को क्या कह कर समझाया होगा? मेरे बारे में बच्चों ने क्या सोचा होगा? बूढ़ी होती मां का क्या हाल होगा, जिसने कभी सपने भी नहीं सोचा होगा कि ऐसा होगा। पड़ोस वाले जब पूछते होंगे तो क्या जवाब मिलता होगा? सरोज कैसे और कहां भटकेगी, किसके पास जाएगी और क्या कहेगी? क्या कोई होगा जो साथ आएगा? परंतु शायद कुछ अच्छा या व्यवहार कह लो जो मेरे पास-पड़ोस वालों ने मेरे परिवार को निराश नहीं होने दिया। मैं केवल धन्यवाद देकर उनसे पीछा नहीं छुड़ाना चाहता उन लोगों से, जो उन दिनों मेरे परिवार का सहारा बने। मैं जीवनभर उनका आभारी रहूंगा। तुम्हारे लिए जान भी हाजिर है वाले भी कुछ ऐसे थे जो वक्त पर गायब थे। कुछ ऐसे भी जिन्होंने घर आकर पूछना भी बेहतर नहीं समझा। परंतु वक्त आपको दोस्ती का आईना दिखा देता है और उन्हें पहचानना, जो आपके अपने हैं।

खैर, सोचते-सोचते न जाने कब आंख लगी। सुबह की घंटी के साथ ही नींद खुली। लाउड्स्पीकर बज रहा था और बिस्तर छोड़ कर जेल के बारामदे में आने का आदेश मिला। हाथ मुंह धोकर व शौच आदि से निपट कर बारामदे में सब इकट्ठे हो गए। कुछ देर बाद लाउस्पीकर पर 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम...' गाना बजा जिसे सभी बंदी भाईयों को लाईन में खड़े होकर गाना होता है उसे प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना खत्म होने के बाद नाश्ते में चार डबलरोटी के पीस और कुछ उबले हुए चने के साथ चाय भी दी जाती है। अलग से परोंठे वाले और चाय वाले भी आए। जिनके पास कूपन थे, 'जेल में पैसों के बदले कूपन मिलते हैं, अधिक से अधिक एक कैदी को 250 रुपये के, जो मिलने वाले खरीद कर दे जाते हैं। कूपन पांच और दस रुपये के होते हैं। जिनको जेल की सरकारी चाय पसंद नहीं थी वे कूपन देकर चाय पी रहे थे। मेरा पहला दिन था सो मैं सिर्फ देख सकता था। परंतु शायद कोई शक्ल ताड़ गया था। वह मेरे पास आया और मुझे एक परांठा और चाय पिलाई। खरीदी हुई चाय जेल की चाय से अच्छी लगी। भाईयों की कृपा से दूसरे दिन मेरे पास भी कूपन थे। उस कूपन से गमछा, गिलास और टूथ ब्रुश खरीदा।

नाश्ते के कुछ देर बाद नए कैदियों को जेल में ही बने ऑफिस के समीप बुलाया गया, जहां से नए आए कैदियों को काम पर भेज दिया जाता है और यहीं से पुराने कैदियों को भी दूसरी जेलों में भेजा जाता है। बचे हुए कैदियों में से कुछ पौधों की क्यारी में गए। कुछ जवान दिखने वाले कूड़ा उठाने में लगा दिए गए। कुछ को बरामदे में बने पानी के टैंक में पानी भरने का काम दिया गया। मुझे कुछ लोगों के साथ पत्ते उठाने के काम पर लगा दिया गया। परंतु बढ़ी हुई दाढ़ी और बिना डाई के सफेद हुए बालों को देखकर मुझ पर शायद मुंशी को दया आई और मुझे एक ओर बैठने को कहा गया, साथ में हिदायत दी की मैं उन पर नजर रखूं जो काम कर रहे हैं। पुराने कैदियों या कुछ लंबी सजा पाए कैदियों को जेल में ही काम मिल जाता है। जेल में काम करने वाले अधिकतर पुराने कैदी ही होते हैं जिन्हें मुंशी-मेठ कहा जाता है। महीने में 500 रुपये बतौर पगार भी दी जाती है।

चारों तरफ फैली हरियाली खूबसूरत थी पर उस दिन खूबसूरत न लगी। मन में एक डर अब भी बना हुआ था कि आगे जाने क्या होगा। पहला दिन जो था। दो घंटे बीत जाने के बाद वापस आए तब तक भोजन का समय हो चुका था। भोजन के बाद 11 बजे के करीब वापस लॉकअप में बंद कर दिया गया। भोजन में ना-नुकुर की कोई गुंजाईश नहीं होती जैसा है वैसा है अन्यथा भूखे रहो। 11 बजे से तीन बजे का समय ऐसा था जिसमें लॉकअप के अंदर रहेंगे। यह बीच का समय आपस में एक दूसरे से कहने सुनने में बीत गया। यह समय जान पहचान बढ़ाने में सहयोगी बना। शाम पांच बजे ताला फिर खुला और हम बाहर आ गए। चाय के साथ चने फिर मिले। पर शाम मेरे लिए थोड़ी सुकून लेकर आई। वह इसलिए कि मैदान में बॉलीवाल का नेट लग चुका था और मैं इसका पुराना जंगलगा चैंपियन। पुराने बंदी भाई बॉल पर हाथ आजमा रहे थे। प्रार्थना करने पर किनारे में एक जगह मिली और फिर धीरे-धीरे सेंटर में जाकर बॉल पर कब्जा जमा लिया। मेरे साथ अंधों में काना राजा वाली कहावत चरितार्थ सिध्द हुई। बॉलीवाल का एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि पुराने कैदियों से पहचान होने के बाद मुझे काम से छुटकारा मिल गया। इसी पहचान का एक फायदा यह हुआ कि कुछ पुराने बंदी भाई मुझे मुंशी बनाने पर तुल गए। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि भाई मुझे सात-आठ दिन बाद बाहर जाना है, मैं मुंशी बन कर क्या करूंगा। उन्होंने बड़े मायूस होकर कहा कि हम भी ऐसा ही समझते थे पर आठ महीने से यहीं पड़े हैं। उनकी बात सुनकर एकबार तो हिम्मत जवाब दे गई। परंतु बड़ी हिम्मत से हाथ जोड़ कर न कहा।

शाम छह बजते ही भोजन का समय। भोजन के बाद सभी बंदी भाई लॉकअप में। अब तक साथ आए और पुराने रह रहे बंदी भाईयों से पहचान हो चुकी थी सो समय कम बोझिल लगा। इन्हीं कैदियों में एक बुजुर्गवार थे नाम पता नहीं पर उम्र तकरीबन 75 के आसपास थी। झुर्रियोंभरा चेहरा, सफेद हो आईं आंखें, झुकी हुई कमर और ठीक से चलने की हालत भी नहीं। इल्जाम, चोरी कर भागते हुए पुलिस ने पकड़ा। पूछने पर पता चला उन्हें सरकारी बिजली की तार चोरी के मामले में पकड़ा है। भागना तो दूर आदमी ठीक से चल नहीं पाता, ठीक से रोटी चबा नहीं पाता और चोरी कर भागते हुए पकड़ा जाता है? हुआ क्या था, पूछने पर बताया कि एक लड़का कहीं से तार चोरी कर लाया था और थैला मुझे देकर बोला, बाबा कुछ देर अपने पास रखना मैं बाद में आकर ले लूंगा। मुझे क्या पता पुलिस उसके पीछे लगी थी। घर भी सड़क किनारे ही था। घर क्या था सड़क किनारे पड़ा पाईप था जिसे घर बना लिया था। पुलिस ने थैला मुझे देते हुए देख लिया था सो मुझे ही धर लिया। कितना समझाया, कितना कहा पर उनके पल्ले नहीं पड़ी। सच जाने क्या थी, खैर जीवन तेरे खेल निराले।

एक साहब थे तहसीलदार सिंह। अक्सर पत्ते चबाते दिख जाते थे। एक दिन मैंने कारण पूछा कि इन पत्तों को क्यों चबाते हो? पता चला वे पत्ते चबाते नहीं होठों और मसूड़ों के बीच में तंबाकू की तरह रखते हैं। उनके अनुसार इन पत्तों में तंबाकू का स्वाद मिलता है। मैंने भी चबाया परंतु मुझे कहीं से भी तंबाकू का स्वाद उसमें नहीं मिला। बातों को सिलसिला आगे बढ़ाने की गर्ज से मैंने पूछा- क्या यहां तंबाकू का जुगाड़ नहीं हो सकता। मिलता है, पर दो रुपये की पुड़िया के 250 रुपये चुकाने पड़ते हैं। मिलने को तो बीड़ी भी मिलती है पर 20 रुपये की एक -उसने बताया। इससे तो ऐसे ही भले, मैंने मन में सोचा। पर मन में एक उलझन थी कि यह सामान अंदर आता किस तरीके से है? जहां एक चिड़िया का बिना इजाजत चुपके से आना भी बर्दाश्त नहीं किया जाता।

तहसीलदार सिंह तीन महीने पुराने हो चुके थे और अंदर की काफी बातें उन्हें मालूम थी। सोचा इन्हीं से पूछ लिया जाए। परंतु जो उन्होंने बताया, सुनकर मैं दंग रह गया। तंबाकू लाने के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल किया जाता था वह अनोखा था। पहले एक प्लास्टिक के टुकड़े में तंबाकू रख कर उसे एक धागे में बांध लिया जाता है और पानी के घूंट के साथ उसे निगलकर धागे को दांत में फंसा लिया जाता है। जेल में आने के बाद उंगली डालकर उलट दिया जाता है। अब बीड़ी लाने का किस्सा भी अजब है जिस पर विश्वास करना मेरे जैसे आदमी के लिए थोड़ा मुश्किल है, बीड़ी को प्लास्टिक के टुकड़े में फंसा कर पखाने के रास्ते अंदर सरका दिया जाता है और अंदर आकर जोर लगाने से निकाल दिया जाता है। है न कमाल।

अद्भुत जानकारी मिल जाने के बाद तहसीलदार सिंह से मैंने जेल आने का करण पूछा। वह किस्सा भी पूरा फिल्मी था। पूछने पर बताया कि उन पर लड़की भगाने का इल्जाम था। तहसीलदार सिंह बिहार के रहने वाले थे और गाने लिखने का उन्हें बहुत शौक था। गाते भी अच्छा थे। उनके अनुसार वे भोजपुरी सीडी के लिए गाने लिखते-गाते थे। इसी शौक के कारण उनका स्टूडियो आना जाना काफी होता था। स्टूडियो में ही उनकी मुलाकात एक लड़की से हो गई जिससे पहले प्यार और फिर बाद में शादी हुई। परंतु उनकी शादी लड़की के परिवार वालों नागवार गुजरी जो अक्सर होता है। इस सबसे बचने के लिए वे शादी के बाद कुछ दिनों के लिए बिहार अपने गांव चले गए ताकि मामला जब शांत हो जाएगा वापस आ जाएंगे। परंतु उनके ये कुछ आराम से न गुजरे। लड़की के घरवालों ने थाने में रपट लिखा दी और नाबालिग लड़की को भगा ले जाने का इल्जाम तहसीलदार के माथे पर ठोक दिया। रिश्तेदारी पुलिस में होने के कारण पुलिस ने भी फुर्ती दिखाई और एक रात छापा मारकर उन्हें उनके गांव से पकड़कर दिल्ली ले आए। दिल्ली लाने के बाद लड़की के घरवालों ने पुलिस पर दबाव बनाया और मुझे जेल भिजवा दिया। पिछले तीन महीने से यहीं हूं। कोर्ट में तारीख पड़ने पर जाता हूं पर लड़की को कोर्ट में नहीं लाया जाता। शायद उसे भी मेरे खिलाफ भड़का दिया था। मेरे घर में कोई है नहीं और बिहार से कोई मेरी जमानत करवाने यहां आएगा नहीं, उसने बताया। तहसीलदार काफी साल से गांव नहीं गया था इसलिए कोई मेलजोल वाला था नहीं और रिश्तेदारों से भी मिलना जुलना बंद हो चुका था। मेरे जेल से बाहर आने तक तहसीलदार सिंह जेल में ही था।

एक रात अचानक किसी की रोने की आवाज आई। नींद खुली तो देखा बगल लेटे-लेटे कोई रो रहा है। ठीक से देखा तो वह था संजय सिंह। बिहार का ही रहने वाला। अनपढ़ और भोला जिसे दिल्ली में बेवकूफ की संज्ञा दी जाती है। उसके अनुसार उसका कसूर था सोने की स्मगलिंग करना, जिसके लिए उसके छोटे भाई ने भी छह महीने की सजा काटी थी और उसके छूटने के बाद अब वह काट रहा है। उन्हें उनके गांव से ही पकड़ा था और दिल्ली ला कर तिहाड़ में बंद कर दिया गया था। संजय सिंह के मुताबिक वह सुनार की दुकान में काम करता था। सोना कहां से आता है कहां जाता है इसका उसे कुछ मालूम नहीं था। अचानक गांव में एक दिन पुलिस आई और उसके छोटे भाई को पकड़ कर ले गई। बहुत मार पड़ी। संजय को भी बहुत पीटा गया था। महीनों बाद भाई जेल से रिहा हुआ और पुलिस संजय को पकड़ लाई। कोई सुनने वाला था नहीं, कोई साथ आने वाला भी नहीं था जो कोर्ट में उसके लिए वकील करता। सुनार ने भी पल्ला झाड़ लिया था जैसे पहचानता ही नहीं।

रात अजीब हुआ। नए कैदियों में से एक अचानक उठा और खिड़की के सहारे अटारी पर चढ़ गया। वहां जलते बल्व पर कपड़ा रखकर नीचे आ गया। थोड़ी देर बाद जब कपड़े के जलने से धुआं उठने लगा वह दौड़ कर कपड़े उठा लाया और जेब से कुछ निकालकर सुलगाने लगा। थोड़ी ही देर में अचानक सायरन बजा, फिर पुलिस आई और उसको पकड़कर गई। उसे बहुत मार पड़ी थी। पता चला कि वह व्यक्ति स्मैक पीने की कोशिश कर रहा था। जिसको अटारी पर चढ़ते उतरते गार्ड ने देख लिया था और पुलिस को इसकी इत्तला कर दी थी।

सभी तरह के कैदी जेल में बंद हैं। कुछ आतंकवादी कह कर पकड़े गए तो कुछ वे फौजी जिन पर सुरक्षा से जुड़ी सामग्री बेचने का इल्जाम है। जेल से ही जुड़ी एक अति सुरक्षा कोठरी भी थी जिसमें रईस बंदी भाई थे। मनु शर्मा नाम के कैदी भी वहीं थे। इस अति सुरक्षा कोठरी में रहने वालों की सेवा भी कुछ अलग होती थी। काम करने को कुछ था नहीं साथ में सेवा के लिए जेल से ही मिला एक अर्दली भी था जो उनके कपड़े धोता, कमरे की साफ सफाई करता है। बाईस सौ रुपये माह में मिलने वाली कोठरी में दो पलंग होते हैं और कैदी भी दो ही होते हैं। ये वे रईस कैदी होते हैं जिन्होंने घपला भी बड़ा किया होता है। बिल्कुल घर जैसी सुविधा पर बिना घर-परिवार के।

जेल में ही एक दवाघर भी है जहां दर्द पांव में हो या सर में, गोली एक ही दी जाती है। गैस के लिए दी जाने वाली डाइजिन आपको जरूर मिलेगी चाहे आपके शरीर में फोड़े निकल आए हों। हाथ लगाने से डॉक्टरों को परहेज होता है इसलिए वे केवल दूर से पूछकर आपका ब्लेड प्रेशर और बुखार शायद अपनी आंखों से ही नाप लेते हैं। ज्यादा पूछने पर कि डॉक्टर आप हैं या मैं, कहकर आपका मुंह बंद कर देते हैं। टहलने के वास्ते और काम से बचने के लिए, तबियत गड़बड़ी का बहाना बनाकर कुछ बंदी भाई रोज दवा लेने जाते हैं क्योंकि वहां दो तीन घंटे लाईन में रहना लाजिमी होता है। तीन नंबर जेल में एक अस्पताल भी है। आप दिल दहला देने वाली आवाज के साथ पेट, सर या छाती में हाथ रख सकते हैं। इससे होगा यह कि आपको तुरंत अस्पताल में भेज दिया जाएगा बाकी सब आपकी कला पर निर्भर करता है कि इलाज से आपको फायदा हो रहा है या नहीं।

दो दिन जेल में बीत जाने के बाद सरोज मुझ से मिलने आई, साथ में भाई लोग भी थे। सपाट सा चेहरा बहुत कुछ पूछती सी आंखें। परंतु मैं सरोज से आंखें मिलाने से कतरा रहा था कारण जानता था। कुछ कहने या पूछने की हिम्मत थी नहीं। कुछ कपड़े व खाने के लिए रोटी सब्जी थी। उसे लेकर मैं जेल के भीतर आया। गेट के भीतर आकर पुराने कैदियों को खाने में से कुछ हिस्सा बांटा। बचा हुआ खाना लेकर मैं पार्क में इंतजार के लिए बने हॉल में आया। बहुत दिनों के बाद खाने को देखकर घर की बहुत याद आई और गला भर आया। मन में खूब रोया। अपने पर गुस्सा भी आया पर हालात के आगे मजबूर था। थोड़ी देर बैठे रहने के बाद अपने पैरों पर अपने शरीर को उठाया और बोझिल हो आए पैरों को धीरे-धीरे जेल की तरफ बढ़ाया। लाए हुए फलों को नए बन चुके मित्रों में बांटा। मैले हो आए कपड़ों को बदला तो थोड़ी राहत मिली।

अब तक आपस में एक दूसरे के अनुभवों व उन पर गुजरे वक्त को सुनकर समय बिताने में मजा आने लगा था। पहचान बढ़ जाने से तीन कंबल और एक चादर भी मिली। दो कंबल बिछाने के लिए और एक तकिए के काम आता था। सोने के लिए कोठरी के बाहर वाली जगह जहां मुंशी जी सोते थे, मिल गई। मैं खाना भी बाहर से मंगाने लगा था। एक डाइट 60 रुपये में मिलती थी, जिसमें चार रोटी, दाल, सब्जी और थोड़ा चावल भी होता था। खाना अच्छा था। जेल के खाने में रोटी, सब्जी व दाल मिलती थी। चावल व दूध के लिए अलग से उन कैदियों को आवाज लगती थी जिन्होंने अपना नाम लिखा रखा था। यदि आपको चावल व दूध चाहिए तो आप एक प्रार्थना पत्र जेल अधिकारी के नाम भेजें तथा क्यों चाहिए का विवरण भी आपको देना होगा। यदि आपकी जरूरत उचित लगी तभी आपको चावल और दूध दिया जाएगा।

शाम के समय सात बजते ही जेल में मौत का सन्नाटा छा जाता था। कारण था सात बजे से नौ बजे तक लाउड्स्पीकर पर रिहाई के लिए नामों का बोला जाना। जिनकी रिहाई होती थी उनकी खुशी देखने लायक होती थी। उनके जाने के बाद भी लाउड्स्पीकर पर नजर लगी रहती थी शायद रिहाई की कोई पर्ची आ जाए और उसमें अपना भी नाम हो। समय बीत जाने के बाद फिर वही उदास शाम, वही रात। जैसे-जैसे समय बीतता गया मन रिहाई न हो पाने का डर घर करने लगा। पर रिहाई जिस दिन होनी थी सो हुई।

13 नवंबर का दिन और दिन से कुछ अलग था। सुबह से ही मन में अजीब खुशी घर कर चुकी थी। सुबह का मौसम सुहाना लगा। हर तरफ कुछ अच्छा सा लग रहा था। तभी नाई ने जेल में प्रवेश किया और मेरी बढ़ आई दाढ़ी की तरफ इशारा कर पूछा, भाई साहब दाढ़ी बनवाएंगे? मैंने भी सोचा बहुत दिन हो गए, दाढ़ी बनवा ही ली जाए। साथ वालों ने पूछा- क्या बात है आज खुश लग रहे हो? मेरे मुंह से निकला, शायद आज जमानत हो जाएगी और मैं रिहा होने वाला हूं। मेरी बात पर उन्होंने हंस कर कहा- हम भी पिछले छह महीने से यही सोच रहे हैं कि आज का दिन आखिरी है। मैंने कहा- तुम्हारा पता नहीं पर मुझे यकीन हो रहा है कुछ अच्छा होने वाला है। दाढ़ी बनवाने के बाद नहाया और तेल से मालिश करने के बाद साफ कपड़ों को पहना जैसे वाकई रिहाई का बुलावा आने वाला हो। उस दिन मिलने के लिए भी कोई नहीं आया, इससे विश्वास और जम गया कि हो सकता है घर से शाम को ही आएं। इंतजार में सुबह से शाम हुई और वक्त आया रिहाई की पर्चियों का। सांस रोके नामों को सुनता रहा और रिहा होते लोगों को देखता रहा। तीन पर्ची बुल जाने के बाद भी किसी पर्ची में नाम नहीं आया। मन मायूस हुआ और निराशा आंखों से बह निकली। अचानक कुछ देर बाद एक पर्ची फिर आई और एक-एक कर नाम बोले गए, जिसमें मेरा भी नाम था। खुशी इतनी हुई कि शब्द गले में अटक गए और बस सबसे हाथ ही मिला सका। बाहर निकलते तक तीन बार वहीं जांच और आखिरकार मैं जेल के बाहर।

बंधन और आजादी में कितना अंतर होता है उसे पहली बार महसूस किया। खाया पिया कुछ नहीं और गिलास तोड़ा बाराह-आना। जेल मुझे हुई और सजा मेरे परिवार ने भुगती। उस दिन कान पर हाथ रखा, कसम खाई कि ऐसा कोई काम, चाहे जान ही क्यों न चली जाए कभी नहीं करूंगा जिससे परिवार को भुगतना पड़े। आखिर कुछ महीनों बाद जो सबूत थे नहीं, वे कभी मिले नहीं और केस सिरे से खत्म।